मंगलवार, 22 सितंबर 2015

कहानी

अविस्मरणिय यात्रा - भाग २ 

रात के हवा के झोंको की बात ही कुछ और होती है, आगाज़ में एक शीतलता और ख़ामोशी होती है। इसलिए तो लेखक और कवि रात के शांत वातावरण में अपने विचारों को गूँथने की कोशिश करते है। इस समय की नींद भी सबसे ज्यादा सुखद होती है, और इसी सुखद नींद को मै आज आत्मसात कर रही थी।  पर यह नींद इतनी भी गहरी ना थी , और एक आवाज से मेरी आँख खुल गई।  लगा कोई स्टेशन आ रहा है, या फिर कोई ट्रैन में चढ़ रहा है। 
मेरे विचार के विपरीत ट्रैन तो तेज गति से चले जा रही थी। घडी में सुबह के तीन बज रहे थे, इस समय अचानक आँख खुलने से थोड़ी झुलझुलाहट हो रही थी।  तभी सामने वाली बर्थ पर देखा तो एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति बैठा था। यह व्यक्ति तो पहले यहाँ नहीं था, अचानक कहाँ से आ गया ? प्रमुख स्टेशन के बाद अगला स्टेशन करीब सुबह ६  बजे आता है ।  मैं विचारो के इन सब उधेड़बुन में थी कि वह व्यक्ति मुझे देखकर मुस्कुराया, मैं प्रत्युत्तर में उसे देखकर मुस्कुरा दी।  पर भीतर से मुझे तो कई विचार खाए जा रहे थे। 
इतने में उस व्यक्ति ने कहा, 'तुम नैनी जा रही हो ना ?' मैंने थोड़ा चकित होते हुए हामी भर दी। मेरे चेहरे के भाव को पढ़ते हुए उसने कहा  'फ़िक्र मत करो वह तुम्हारे कार्यक्रम का एक प्रॉस्पेक्टस गिरा हुआ था, मैंने उसमे देखा।'
 उस व्यक्ति ने कहा, 'क्या तुम सच में भूत- प्रेत और अलौकिक शक्तियों पर विश्वास नहीं करती?  
समय न गवाते हुए मैंने सीधा जवाब दे दिया 'हाँ,यह सब बकवास है, मै तो बिलकुल भी उनपर विश्वास नहीं करती और शायद इसी वजह से मै इस कार्यक्रम से जुडी हुई हूँ। ' 
'क्या तुमने कभी भूत प्रेत देखे है, या फिर इन  शक्तियों को महसूस किया है?' 

'नहीं ! ' मैंने कहा ''दरअसल यह सब बातें लोगों की दिमाग की उपज है और कुछ नहीं, उन्हें यह सब अपने सब - कॉनसियस माइंड से महसूस होता है।  इन सब शक्तियों का वैसे भी अब तक कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है।'' 
वह व्यक्ति मेरी बातों को ध्यान  से सुन रहा था।  उसके बाद उसने कहा, '' तुम अपनी जगह सही हो, पर कई लोगों ने  पूरे  होशोहवास में ऐसी आकृितिया देखी है जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। '' मुझे उस अनजान से व्यक्ति से बात करना ठीक नहीं लग रहा था, पर मुझे लगा इस व्यक्ति से बात करके शायद मुझे रिसर्च में कुछ और मदद मिल जाये और साथ ही समय भी कट जायेगा।  नींद तो मेरी आँखों से कोसो दूर थी।  
''हाँ, हो सकता है पर जब तक वैज्ञानिक सबूत नहीं है, ऐसी बातों पर मेरा यकीन करना मुश्किल है।''  
उसने एक फीकी मुस्कान दी और पूछा ,'' क्या तुम ईश्वर पर विश्वास करती हो?'' मैंने कहा ''हाँ , पर मै ईश्वर को एक सकारात्मक ऊर्जा के रूप में मानती हूँ जो इस दुनिया को चला रहे है।'' 
उसने कहा, '' बिलकुल सही, तुम यह तो मानती हो ना इंसान का शरीर भी ऊर्जा का एक का एक स्वरुप है? जिसे 'आत्मा '' कहा जाता है "  
''हाँ '' मैंने कहा। उसने आगे कहा ''जब एक इंसान मरता है तो वह अपना शरीर छोड़ता है, पर उसकी आत्मा तो इसी ब्रह्माण्ड में रहती है। जो आगे किसी और रूप को धारण कर लेती है। '' 
मैंने इन सब तथ्यों को अपने दादाजी के मुंह से सुना था, पर मैंने हमेशा ही इस बात को नकारा था। मैंने फिर वही शब्द कहा कि ,''क्या इसका कोई सबूत है, नहीं ना तो इन सब बातों को क्यों सच समझना चाहिए?'' 
उसने कहा ,'' तुम सही हो पर तुम्हे पता है कुछ बातों को साबित नहीं किया जा सकता है। कुछ ऊर्जा या आत्मा अपने इस अनदेखे प्रवास के दौरान पृथ्वी पर ही बंद हो जाती है। जिसे भूत- प्रेत कहा जाता है।'' 
मैंने ऐसे रोचक तथ्य कभी नहीं सुने थे, ''क्या ऐसा भी होता है? मुझे इस बारे में कुछ नहीं पता है।'' 
''और ऐसा भी  कहा जाता है कि जो आत्माये इस धरा पर ठहर जाती है, उनका कुछ उद्देश्य होता है जो वह अपने जीवन में  नहीं पूर्ण कर पाये होते है। ऐसी आत्मये अतृप्त होती है जो यहाँ वह भटकती रहती है और मोक्ष पाने का इन्तजार करती रहती है'' 
''तो फिर जो लोग इन आत्माओं के चपेट में आने से जान दे देते है, वह क्या है ? '' मैंने पूछा। 
''कोई भी आत्मा इतनी सक्षम नहीं होती की वे इंसान की जान ले पाएं।यह काम उनसे करवाया जाता है ताकि बिना किसी सबूत के वे अपने दुश्मन का काम तमाम कर दे।'' 
आज तक मैंने ऐसी बाते कभी नहीं सुनी थी। मैंने दौड़ती ट्रैन के बाहर देखा तो सूरज उदय होने की तैयारी में था। मैंने फिर उस व्यक्ति की ओर देखा और पूछा ,'' क्या आपने कभी ऐसा कुछ देखा है? जो आपने इतने विश्वास के साथ इन सब बातों को मुझे बताया।'' 
वह व्यक्ति थोड़ी देर तक खामोश रहा और कहा ,'' क्या तुम अब भी अलौकिक शक्तियों पर यकीं नहीं कर पाई हो?'' 
मुझे यह प्रश्न कुछ अटपटा सा लगा और बिना मेरे कुछ उत्तर देने से पहले ही वह व्यक्ति मेरी आँखों के आगे से ओझल हो गया, जैसे कोई सफ़ेद धुँआ छट गया हो। मुझे तो अपनी आँखों  पर विश्वास ही नहीं हुआ, आँखों को मसल कर फिर सामने वाली सीट पर देखा तो वह कोई नहीं था। ट्रैन की रफ़्तार तो एक जैसी थी। मै तुरंत उठकर यहाँ - वहाँ देखने लगी पर मुझे तो उस व्यक्ति का नामोनिशां ही नहीं मिला। सामने सूरज पूरी तरह से भोर हो चुका था, घडी ५.३० के समय दिखा रही थी। 
पसीने से तर- बतर मुझे याद आया की कुछ देर में मेरा स्टेशन आने वाला है। इतने में सामने वाली सीट का वह लड़का मुझे असमंजस में देख कर बोला ,'' मैडम आप रात में अकेले किस से बात कर रही थी? मै बाथरूम जाने के लिए उठा था, तो आपको देखा, पर उस समय आपको टोकने की हिम्मत नहीं थी।'' हिम्मत तो मेरी भी नहीं थी कि उसे बताऊ रात में मै जिस व्यक्ति से  बात कर रही थी वह कौन था? 
इतने में मेरा स्टेशन आ गया, और सामने मेरे टीम मेंबर मुझे लेने के लिए खड़े थे। मैंने जैसे तैसे खुद को संभाला और ट्रैन से उतरी। टीम मेंबर्स ने मेरा फीके चेहरे का कारण पूछा पर मैंने कुछ भी जवाब नहीं दिया। गाड़ी में वे सब यही बात कर रहे थे  कि भूत - प्रेत कुछ नहीं होता बस मन का वहम है। जब उन्होंने मेरा विचार जानना चाहा तो मैंने चुप्पी साध ली । आखिर उनको कैसे बताती की इस ट्रैन की इस यात्रा ने मेरे विश्वास और जीवन को एक दूसरा आयाम दे दिया है, जो चाह कर भी अगर किसी को बताऊ तो वह यकीं नहीं करेगा ……। 

सोमवार, 21 सितंबर 2015

आरक्षण देना बंद करो ....!!!

आरक्षण - देश का भक्षण 



आओ तुम भी आरक्षण ले लो, 
धीरे धीरे देश का भक्षण कर लो 
पहले तुम अपनी जात बताओ, 
फिर तुम अपना धर्म बताओ 

अच्छा ! चलो अब कितना, 
आरक्षण कब और कहाँ चाहिए 
क्या कहा ? फिर से कहना 
 'शिक्षा और सरकारी नौकरी में' 



अच्छा चलो अपनी योग्यता दिखाओ 
अच्छा! जरुरत नहीं योग्यता की 
'तुम 'जन्मजात योग्य' हो'
तो फिर बढ़िया है 

अच्छा तुम गरीब हो
'नहीं तो मै सबसे सम्पन हूँ' 
इसलिए तो आरक्षण के योग्य हूँ 
हमे भी हिस्सा चाहिए'

किसका हिस्सा? योग्य विद्याथियों का ?
जरुरतमन्दो का? 
'नहीं हमें  भी आरक्षण चाहिए' 
ठीक है आरक्षण मिलेगा, 
पर एक शर्त है, उतने ही लोग 
सेना में भर्ती होने चाहिए,
'सेना में क्यों, हम अपना हक़ मांग रहे है' 
तुम्हे हक़ मिलेंगे पर जिम्मेदारी और त्याग के साथ 
जब ऐसी शर्त है तो मुझे 
आरक्षण नहीं चाहिए, 

क्यों तुम मुकर गए हो अब 
दुम दबाकर भाग गए हो अब 
आरक्षण उनके लिए है 
जो असहाय है, जो गरीब है जो योग्य है  
नाकि एक जात में पैदा हो इसलिए 

तुम्हे परमात्मा में हाथ - पैर दिए है 
तुम्हे बुद्धि दी है, क्यों ना 
वह बुद्धि तुम देश की सेवा 
में लगाओ नाकि 
देश में अराजकता फैलाओ 

श्रीमान हार्दिक, कुछ पाने के 
लिए मेहनत करनी पड़ती है 
नाकि तुम्हारे तरह आरक्षण की भीख मांगी जाती है 
तुम तो अभी अंडे से निकले चूजे हो 

जिसने अभी, एक इंच भी दुनिया नहीं देखी 
क्या तुम अपनी इस हीन कार्य से 
कुछ हासिल करोगोे
नहीं कुछ नहीं सिर्फ देश की बर्बादी के सिवा 

अगर तुम आरक्षण ख़त्म करने के 
खिलाफ खड़े होते तो 
शायद तुम क़ाबिले - तारीफ़ होते 
पर तुम तो खुद में काफी उलझे हो 

वैसे भी आरक्षण के नाम पर 
तुम देश का भक्षण कर रहे हो 
भारत  माता के दामन को कुचल रहे हो 
तुम जारी रखो अपनी पिछड़ी सोच को 

शायद कुछ दिन में तुम 
फिर से पाषाण  युग का जीवन जियोगे















कहानी

अविस्मरणिय यात्रा - भाग १ 


घडी की ओर देखा तो वह शाम के ७ बजे का समय दिखा रही थी । ट्रैन पकड़ने में अभी दो घंटे का समय और था। एक  सूटकेस में तो कपडे वगैरा रख दिए थे। सोचा दूसरा छोटा बैग में हैंड टॉवल और कुछ कहानी की किताबे और लैपटॉप रख लू  ताकि समय आसानी से कट जायेगा।  जल्दी- जल्दी दूसरे बैग में रोजमर्रा के छोटे- मोटे सामान रखने लगी। इतने में फ़ोन आया  'हेलो, क्या तुमने निकलने की तैयारी कर ली है? समय पर निकलना। हम सब भी यहाँ  जोर शोर से तैयारी में जुटे हुए है, तुम आ जाओगी तो सब फाइनल हो जायेगा।' मैंने हाँ में जवाब देते हुए फ़ोन रख दिया। यह फ़ोन हमारे प्रोजेक्ट हेड का था,  जो इस वक़्त उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े गाँव में कल के प्रोग्राम की  तैयारी में जुटे थे। वैसे तो पेशे से मै एक पत्रकार हू, पर साथ ही अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के साथ भी नियमित रूप से जुडी हूँ। 

जिस पिछड़े गाँव में हमारे टीम के सदस्य  कार्यक्रम की तैयारी कर रहे है उस गाँव में पिछले एक साल में करीबन भूत- प्रेत की बाधा के कारण कई लोग अपनी जान गवा चुके है। मूल रूप से उत्तर प्रदेश की होने के कारण इन बातों का काफी समय से अध्ययन किया था। उसके बाद अपने प्रोजेक्ट हेड को अगले अंधश्रद्धा निर्मूलन कार्यक्रम के लिए इस गाँव का सुझाव मैंने ही दिया था। वैसे तो मुझे ही वह सबसे पहले वहां पहुँचना था। पर एक अति आवश्यक न्यूज़ के आ जाने के वजह से मैंने शाम की ट्रैन से जाने का निश्चय किया। 



स्टेशन पहुंची तो, ट्रैन आने में अभी पंद्रह मिनट का समय था। स्टेशन पर ट्रैन के लिए काफी ख़ास भीड़ नहीं थी, वैसे यह छुट्टियों का समय नहीं था। ट्रैन समय पर आई, मैंने अंदर जाकर अपना सामान  गंतव्य स्थान पर रखा। काफी सारी सींटे खाली थी, सिर्फ बगल वाले टू सीट पर एक लड़का था। स्थान ग्रहण करते ही ट्रैन निकल पड़ी। फ़ोन करके अपने प्रोजेक्ट हेड को इंतला कर दिया और खिड़की के बाहर नजर घुमाई। रात के इस अँधेरे में यह जीवन जैसे अपना गति खो बैठता है। सिर्फ इस ट्रैन के सिवा कोई और ज्यादा हलचल नही हो रही थी। 

पानी की बोतल से एक घूंट पानी पी के , एक सैंडविच खाया। देखा तो अभी सिर्फ दस बज रहे थे। सोचा क्यों ना अपने रीसर्च और सारे एजेंडा को एक आखिरी स्वरुप दे दू। लैपटॉप पर काम करते करते १२ बज गए पर फिर भी नींद थी की आँखों में आ ही नहीं रही थी। अंत में लैपटॉप बंद करके खिड़की से ठंडी हवा का लुफ्त लेने लगी। साथ ही मै सोचने लगी की क्या सच में भूत प्रेत होते है, अगर है तो मैंने तो कभी नहीं देखे फिर अगर है तो वह लोगो की सोच में है या सच में है। मेरे रीसर्च में तो मैंने यही पाया है की यह सब एक मनोवैज्ञानिक दशा है। पर लोग जो वह दूसरे आवाज में बात करते है, छाया दिखने की बात करते है वह सच है क्या? ऐसे ना जाने कैसे कैसे सवाल मेरे मन में आ रहे थे। पर अंत में मैंने अपने आप को समझाया ये सब कुछ नही होता है और कल मुझे अपने एजेंडा पर दिल लगा के काम करना है। यह सोचते- सोचते ही मैं नींद के आगोश में आ गई। 


शनिवार, 19 सितंबर 2015

नानी के गाँव की यादों का विवरण

नानी का गाँव 


चलो कुछ दिन गाँव में बिताये 
कुछ दिन पीपल की छाँव में बिताये,
व्यस्त जिंदगी से दो पल मिठास में बिताये 

वह नानी का घर, वह मीठी धूप 
वह जामुन का पेड़, वह मिटटी के खिलौने 
वह मस्ती का अड्डा, वह घास का बिछौना 
जो था हुड़दंगो का ठिकाना 



सुबह होते उठ जाना
दौड़ कर अमिया को तोड़ लाना 
पेड़ भी पक्का दोस्त था अपना 
देखकर डाली झुका देता 

बोरवेल चलने का इंतज़ार करना 
दौड़ कर पहले तगाडे में घुस जाना
नहरो के किनारे अपना घर बनाते 
जो पल भर में लहरो मे समां जाता 

नानी के हाथ का वह लज़ीज़ खाना,
जो ताजा गन्ने का रस,
गुड  में  चासनी में डूबे हुए गुलगुले 
कच्चे आम का खट्टा अचार 

दिन भर  धमाचौकड़ी करना 
सूरज ढलते ही सो जाना 
सुबह खुद को, मच्छरदानी और 
गुदड़ी से  लैश पाना 

सच यह दिन भी कितने सुहाने थे, 
लड़कपन से अनजान अपनेआप के दीवाने थे 
वह गाँव का गुट कब बड़े होने के साथ 
अलग हुआ पता ही ना चला 

आज इस व्यस्त जिंदगी के 
दो पल उधार ले के 
पुरानी जिंदगी को जीने की कोशिश की 
वह पेड़, नहर अब भी है वहां 
पर जो नहीं है वह हम, हमारा बचपन और हुड़दंग 

शहर की कंक्रीट इमारतों से ज्यादा 
ये प्रकृति हमारे मित्र है 
गाँव की आबोहवा  
जैसे कोई मनमोहक इत्र है 

सुबह होते ही फिर उसी 
निर्दयी जीवन में चलना है 
तब तक जरा इस अमूल्य 
क्षण को निहार लू………