सोमवार, 21 सितंबर 2015

कहानी

अविस्मरणिय यात्रा - भाग १ 


घडी की ओर देखा तो वह शाम के ७ बजे का समय दिखा रही थी । ट्रैन पकड़ने में अभी दो घंटे का समय और था। एक  सूटकेस में तो कपडे वगैरा रख दिए थे। सोचा दूसरा छोटा बैग में हैंड टॉवल और कुछ कहानी की किताबे और लैपटॉप रख लू  ताकि समय आसानी से कट जायेगा।  जल्दी- जल्दी दूसरे बैग में रोजमर्रा के छोटे- मोटे सामान रखने लगी। इतने में फ़ोन आया  'हेलो, क्या तुमने निकलने की तैयारी कर ली है? समय पर निकलना। हम सब भी यहाँ  जोर शोर से तैयारी में जुटे हुए है, तुम आ जाओगी तो सब फाइनल हो जायेगा।' मैंने हाँ में जवाब देते हुए फ़ोन रख दिया। यह फ़ोन हमारे प्रोजेक्ट हेड का था,  जो इस वक़्त उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े गाँव में कल के प्रोग्राम की  तैयारी में जुटे थे। वैसे तो पेशे से मै एक पत्रकार हू, पर साथ ही अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के साथ भी नियमित रूप से जुडी हूँ। 

जिस पिछड़े गाँव में हमारे टीम के सदस्य  कार्यक्रम की तैयारी कर रहे है उस गाँव में पिछले एक साल में करीबन भूत- प्रेत की बाधा के कारण कई लोग अपनी जान गवा चुके है। मूल रूप से उत्तर प्रदेश की होने के कारण इन बातों का काफी समय से अध्ययन किया था। उसके बाद अपने प्रोजेक्ट हेड को अगले अंधश्रद्धा निर्मूलन कार्यक्रम के लिए इस गाँव का सुझाव मैंने ही दिया था। वैसे तो मुझे ही वह सबसे पहले वहां पहुँचना था। पर एक अति आवश्यक न्यूज़ के आ जाने के वजह से मैंने शाम की ट्रैन से जाने का निश्चय किया। 



स्टेशन पहुंची तो, ट्रैन आने में अभी पंद्रह मिनट का समय था। स्टेशन पर ट्रैन के लिए काफी ख़ास भीड़ नहीं थी, वैसे यह छुट्टियों का समय नहीं था। ट्रैन समय पर आई, मैंने अंदर जाकर अपना सामान  गंतव्य स्थान पर रखा। काफी सारी सींटे खाली थी, सिर्फ बगल वाले टू सीट पर एक लड़का था। स्थान ग्रहण करते ही ट्रैन निकल पड़ी। फ़ोन करके अपने प्रोजेक्ट हेड को इंतला कर दिया और खिड़की के बाहर नजर घुमाई। रात के इस अँधेरे में यह जीवन जैसे अपना गति खो बैठता है। सिर्फ इस ट्रैन के सिवा कोई और ज्यादा हलचल नही हो रही थी। 

पानी की बोतल से एक घूंट पानी पी के , एक सैंडविच खाया। देखा तो अभी सिर्फ दस बज रहे थे। सोचा क्यों ना अपने रीसर्च और सारे एजेंडा को एक आखिरी स्वरुप दे दू। लैपटॉप पर काम करते करते १२ बज गए पर फिर भी नींद थी की आँखों में आ ही नहीं रही थी। अंत में लैपटॉप बंद करके खिड़की से ठंडी हवा का लुफ्त लेने लगी। साथ ही मै सोचने लगी की क्या सच में भूत प्रेत होते है, अगर है तो मैंने तो कभी नहीं देखे फिर अगर है तो वह लोगो की सोच में है या सच में है। मेरे रीसर्च में तो मैंने यही पाया है की यह सब एक मनोवैज्ञानिक दशा है। पर लोग जो वह दूसरे आवाज में बात करते है, छाया दिखने की बात करते है वह सच है क्या? ऐसे ना जाने कैसे कैसे सवाल मेरे मन में आ रहे थे। पर अंत में मैंने अपने आप को समझाया ये सब कुछ नही होता है और कल मुझे अपने एजेंडा पर दिल लगा के काम करना है। यह सोचते- सोचते ही मैं नींद के आगोश में आ गई। 


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