नब्बे का दशक
नब्बे के दशक की बात ही कुछ और थी,
डी डी -१ ही एक सहारा था,
रंगोली, सुरभि जैसे कार्यक्रमों का बोलबाला था,
ब्लैक एंड वाइट टीवी थी
जो अक्सर खराब रहती थी
सीरियल के बीच में जाकर
एंटीना ठीक करते थे
किसी एक नामचीन के घर टीवी होती थी
शुक्रवार की फिल्मों का इंतज़ार रहता था
गली के बच्चे बूढ़े जुटते थे
महाभारत और रामायण देखने के लिए
जब कार्यक्रम के बीच न्यूज़ आता
तो गुस्सा आता था
आहट, ज़ी हॉरर शो के लिए हम तरसते थे
और घडी की सुइयां देखते रहते थे
मटके की कुल्फी तो बहुत महंगी लगती थी
एक रुपया भी मुश्किल से मिलता था
पर फिर भी बहुत कुछ आ जाता था
पान वाला चॉकलेट, झट से घुलने वाली नल्ली :)
लुका छिपी कैरम, सांप - सीढ़ी और गुट्टी
पकड़म पकड़ाई तो पसंदीदा खेल था
स्कूल से आते ही जिसमे जुट जाते थे
चीटिंग तो खूब होती, पर मजा भी उतना आता था
ना मोबाइल, ना कंप्यूटर था
पेजर का ज़माना था
रीमिक्स इंडी- पॉप गानों का समय था
भारत के बदलने का समय था
स्कूल ख़त्म होते ही
वह दशक खत्म हो गया
शायद हम भाग्यवाले थे जो यह
खूबसूरत समय जी सके
आज कल तो ना गली में शोर
ना लुका -छिपी, ना बच्चे है
शायद वह कंप्यूटर, मोबाइल में बिजी है
अब के बच्चे वह बच्चे ना रहे
वह तो समय से पहले ही बड़े हो गए है
निजीकरण ने दुनिया तो बदल दी '
साथ ही वह स्वर्णिम क्षण भी
जिसमे हमने अपना बचपन बिताया
वह वक़्त कभी लौटेगा नहीं
इसलिए तो कहती हूँ
नब्बे के दशक की बात ही कुछ और थी...........
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