नानी का गाँव
चलो कुछ दिन गाँव में बिताये
कुछ दिन पीपल की छाँव में बिताये,
व्यस्त जिंदगी से दो पल मिठास में बिताये
वह नानी का घर, वह मीठी धूप
वह जामुन का पेड़, वह मिटटी के खिलौने
वह मस्ती का अड्डा, वह घास का बिछौना
सुबह होते उठ जाना
दौड़ कर अमिया को तोड़ लाना
पेड़ भी पक्का दोस्त था अपना
देखकर डाली झुका देता
बोरवेल चलने का इंतज़ार करना
दौड़ कर पहले तगाडे में घुस जाना
नहरो के किनारे अपना घर बनाते
जो पल भर में लहरो मे समां जाता
नानी के हाथ का वह लज़ीज़ खाना,
जो ताजा गन्ने का रस,
गुड में चासनी में डूबे हुए गुलगुले
कच्चे आम का खट्टा अचार
दिन भर धमाचौकड़ी करना
सूरज ढलते ही सो जाना
सुबह खुद को, मच्छरदानी और
गुदड़ी से लैश पाना
सच यह दिन भी कितने सुहाने थे,
लड़कपन से अनजान अपनेआप के दीवाने थे
वह गाँव का गुट कब बड़े होने के साथ
अलग हुआ पता ही ना चला
आज इस व्यस्त जिंदगी के
दो पल उधार ले के
पुरानी जिंदगी को जीने की कोशिश की
वह पेड़, नहर अब भी है वहां
पर जो नहीं है वह हम, हमारा बचपन और हुड़दंग
शहर की कंक्रीट इमारतों से ज्यादा
ये प्रकृति हमारे मित्र है
गाँव की आबोहवा
जैसे कोई मनमोहक इत्र है
सुबह होते ही फिर उसी
निर्दयी जीवन में चलना है
तब तक जरा इस अमूल्य
क्षण को निहार लू………
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